bhagat singh death anniversary 23 March 1931
भगत सिंह की फांसी से जुड़ी 5 कम जानी हुई बातें
1. 23 मार्च 1931. कहते हैं 1 साल और 350 दिनों में जेल में रहने के बावजूद, भगत सिंह का वजन बढ़ गया था. खुशी के मारे. खुशी इस बात की कि अपने देश के लिए कुर्बान होने जा रहे थे. लेकिन जब इन्हें फांसी देना तय किया गया था, जेल के सारे कैदी रो रहे थे. इसी दिन भगत सिंह के साथ ही राजगुरु और सुखदेव की फांसी भी तय थी. पूरे देश में प्रदर्शन हो रहे थे. लाहौर में भारी भीड़ इकठ्ठा होने लगी थी. अंग्रेजों को इस बात का अंदेशा हो गया कि कहीं कुछ बवाल न हो जाए. इस कारण उन्हें तय दिन से एक दिन पहले ही फांसी पर लटका दिया.
असल में इनकी फांसी का दिन 24 मार्च तय किया गया था. सतलुज नदी के किनारे गुप-चुप तरीके से इनके शवों को ले जाया गया. इनके शवों को वहीँ नदी किनारे जलाया जाने लगा. आग देख कर वहां भी भीड़ जुट गयी. अंग्रेज जलते हुए शवों को नदी में फेंक कर भाग पड़े. कहा जाता है कि गाँव के लोगों ने ही उसके बाद उनका विधिवत अंतिम संस्कार किया.
2. चूंकि फांसी समय पूर्व और गुप्त तरीके से दी जा रही थी, इसलिए उस वक़्त बहुत ही कम लोग शामिल हुए थे. जो लोग वहां मौजूद थे उसमें यूरोप के डिप्टी कमिश्नर शामिल थे. फांसी के तख्ते पर चढ़ने के बाद, गले में फंदा डालने से ऐन पहले भगत सिंह ने डिप्टी कमिश्नर की और देखा और मुस्कुराते हुए कहा, ‘मिस्टर मजिस्ट्रेट, आप बेहद भाग्यशाली हैं कि आपको यह देखने को मिल रहा है कि भारत के क्रांतिकारी किस तरह अपने आदर्शों के लिए फांसी पर भी झूल जाते हैं.’
( जितेंदर सान्याल की लिखी किताब ‘भगत सिंह’ के अनुसार)
3. भगत सिंह ने जेल में अपनी कैद के दौरान कई किताबें पढ़ीं. जब उन्हें फांसी दी जानी थी, उस वक़्त वो लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे. जेल में रहने वाले पुलिसवालों ने उन्हें बताया कि उनकी फांसी का समय हो चुका है. भगत सिंह बोले, “ठहरिये, पहले एक क्रन्तिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल तो ले.” अगले एक मिनट तक किताब पढ़ी. फिर किताब बंद कर उसे छत की और उछाल दिया और बोले, “ठीक है, अब चलो.”
4. अंग्रेज सरकार दिल्ली की असेम्बली में ‘पब्लिक सेफ़्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ पास करवाने जा रही थी. ये दो बिल ऐसे थे जो भारतीयों पर अंग्रेजों का दबाव और भी बढ़ा देते. फ़ायदा सिर्फ़ अंग्रेजों को ही होना था. इससे क्रांति की आवाज़ को दबाना भी काफ़ी हद तक मुमकिन हो जाता. अंग्रेज सरकार इन दो बिलों को पास करवाने की जी-तोड़ कोशिश कर रही थी. वो इसे जल्द से जल्द लागू करना चाहते थे.
उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए भगत सिंह ने असेम्बली में बम फेंकने का बीड़ा उठाया. उनका साथ देने के लिए चुने गए बटुकेश्वर दत्त. इस बम विस्फ़ोट का उद्देश्य किसी को भी चोट पहुंचाना नहीं था. भगत सिंह ने तो जान बूझकर उस जगह बम फेंका जहां सबसे कम लोग मौजूद थे. विस्फ़ोट से कोई भी मारा नहीं. बम फोड़ने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त वहां से भागे नहीं बल्कि खुद को गिरफ़्तार करवाया. उनका प्लान ही ये था. बम फेंकने और गिरफ्तार होने के बीच उन्होंने वहां पर्चे बांटे. पर्चे पर लिखा था – ‘बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंचे शब्द की आवश्यकता होती है.’
इसी काण्ड को अंग्रेजों ने लाहौर षडयंत्र केस नाम दिया जिसमें भगत सिंह को फांसी की और बटुकेश्वर को काला पानी की सज़ा हुई.
5. भगत सिंह को जिस जगह फंसी दी गयी थी, आज वो जगह पाकिस्तान में है. भगत सिंह को फांसी लगाई जाने वाली ऐन जगह पर आज एक ट्रैफिक पुलिस वाला गोलचक्कर बना हुआ है. उस गोलचक्कर पर कई साल पहले 1974 में पाकिस्तानी नेता और एक बड़े वकील अहमद राजा कसूरी के बाप नवाब मोहम्मद अहमद कसूरी की हत्या कर दी गयी थी. अहमद राजा कसूरी अपनी चार में अपने बाप के साथ थे जब उनपर गोलियां चलायीं गयी थीं. ऐसा कहा जाता है कि ये सब कुछ बेनजीर भुट्टो के कहने पर किया गया था. अहमद रज़ा कसूरी के दादा यानी मरने वाले मोहम्मद अहमद कसूरी के बाप उन लोगों में से एक थे जिन्होंने भगत सिंह, राजगुरु, और सुखदेव की फांसी के बाद उनकी लाश की शिनाख्त की थी. लोग कहते हैं कि बदले की देवी नैमेसिस ने कसूरी खानदान को उसी गोलचक्कर पे धर लिया.




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